समाचार ब्यूरो
26/05/2022  :  18:29 HH:MM
वास्तु के उपयोगकर्ता को दिशा ज्ञान होना आवश्यक है
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वास्तु के उपयोग कर्ता अर्थात् भवन में निवास करने वाले, दुकान, मकान, फैक्ट्री आदि जो भी निर्माण है उसका उपयोग करने वाला वास्तु उपयोगकर्ता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार इनका निर्माण और उपयोग किया जाय तो लाभप्रद होता है। वास्तुशास्त्र की जानकारी के लिए आठ दिशाओं की जानकारी होना आवश्यक है। इसके लिए आपको दिशासूचक यंत्र से अच्छी मदद मिलेगी। अपने मोबाईल में भी कोई कम्पास अपलोड कर उपयोग कर सकते हैं। लेकिन हम ऐसे भी जानते हैं कि जिस ओर से सूर्य उदित होता है वह पूर्व दिशा है। उस ओर मुँह करके खड़े होने पर आपके पीछे की ओर पश्चिम, दाहिने हाथ की ओर दक्षिण और बायें हाथ की ओर उत्तर दिशा होती है। अब चार अन्य दिशाएँ जिनकी जानकारी सामान्य व्यक्ति को नहीं होती उन्हें विदिशाएँ कहते है, वे जान लें। उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य का कोण ईशान दिशा कहलाती है, पूर्व और दक्षिण का कोना आग्नेय दिशा, दषिण व पश्चिम के मध्य का कोना नैऋत्य दिशा और पश्चिम तथा उत्तर दिशा के मध्य का कोना वायव्य दिशा कहलाती है। अब इन दिशाओं के महत्व को समझ लें- पूर्व दिशा- इस दिशा के प्रतिनिधि देवता सूर्य हैं। सूर्य पूर्व से ही उदित होता है। यह दिशा शुभारंभ की दिशा है। भवन के मुख्य द्वार को इसी दिशा में बनाने का सुझाव दिया जाता है। इसके पीछे दो तर्क हैं। पहला- दिशा के देवता सूर्य को सत्कार देना और दूसरा वैज्ञानिक तर्क यह है कि पूर्व में मुख्य द्वार होने से सूर्य की रोशनी व हवा की उपलब्धता भवन में पर्याप्त मात्रा में रहती है। सुबह के सूरज की पैरा बैंगनी किरणें रात्रि के समय उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को खत्म करके घर को ऊर्जावान बनाये रखती हैं। उत्तर दिशा- इस दिशा के प्रतिनिधि देव धन के स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा ध्रुव तारे की भी है। आकाश में उत्तर दिशा में स्थित ध्रुव तारा स्थायित्व व सुरक्षा का प्रतीक है। यही वजह है कि इस दिशा को समस्त आर्थिक कार्यों के निमित्त उत्तम माना जाता है। भवन का प्रवेश द्वार या लिविंग रूम/ बैठक इसी भाग में बनाने का सुझाव दिया जाता है। भवन के उत्तरी भाग को खुला भी रखा जाता है। चूंकि भारत उत्तरी अक्षांश पर स्थित है, इसलिए उत्तरी भाग अधिक प्रकाशमान रहता है। यही वजह है कि उत्तरी भाग को खुला रखने का सुझाव दिया जाता है, जिससे इस स्थान से घर में प्रवेश करने वाला प्रकाश बाधित न हो। उत्तर-पूर्व (ईशान कोण)- यह दिशा बाकी सभी दिशाओं में सर्वाेत्तम दिशा मानी जाती है। उत्तर व पूर्व दिशाओं के संगम स्थल पर बनने वाला कोण ईशान कोण है। इस दिशा में कूड़ा-कचरा या शौचालय इत्यादि नहीं होना चाहिए। ईशान कोण को खुला रखना चाहिए या इस भाग पर जल स्रोत बनाया जा सकता है। उत्तर-पूर्व दोनों दिशाओं का समग्र प्रभाव ईशान कोण पर पड़ता है। पूर्व दिशा के प्रभाव से ईशान कोण सुबह के सूरज की रोशनी से प्रकाशमान होता है, तो उत्तर दिशा के कारण इस स्थान पर लंबी अवधि तक प्रकाश की किरणें पड़ती हैं। ईशान कोण में जल स्रोत बनाया जाए तो सुबह के सूर्य कि पैरा-बैंगनी किरणें उसे स्वच्छ कर देती हैं। पश्चिम दिशा - यह दिशा जल के देवता वरुण की है। सूर्य जब अस्त होता है, तो अंधेरा हमें जीवन और मृत्यु के चक्कर का एहसास कराता है। यह बताता है कि जहां आरंभ है, वहां अंत भी है। शाम के तपते सूरज और इसकी इंफ्रा रेड किरणों का सीधा प्रभाव पश्चिमी भाग पर पड़ता है, जिससे यह अधिक गरम हो जाता है। यही वजह है कि इस दिशा को शयन के लिए उचित नहीं माना जाता। इस दिशा में शौचालय, बाथरूम, सीढियों अथवा स्टोर रूम का निर्माण किया जा सकता है। इस भाग में पेड़-पौधे भी लगाए जा सकते हैं। उत्तर- पश्चिम (वायव्य कोण)- यह दिशा वायु देवता की है। उत्तर- पश्चिम भाग भी संध्या के सूर्य की तपती रोशनी से प्रभावित रहता है। इसलिए इस स्थान को भी शौचालय, स्टोर रूम, स्नानघर आदि के लिए उपयुक्त बताया गया है। उत्तर-पश्चिम में शौचालय, स्नानघर का निर्माण करने से भवन के अन्य हिस्से संध्या के सूर्य की उष्मा से बचे रहते हैं, जबकि यह उष्मा शौचालय एवं स्नानघर को स्वच्छ एवं सूखा रखने में सहायक होती है। दक्षिण दिशा - यह दिशा मृत्यु के देवता यमराज की है। दक्षिण दिशा का संबंध हमारे भूतकाल से भी है। इस दिशा में अतिथि कक्ष या बच्चों के लिए शयन कक्ष बनाया जा सकता है। दक्षिण दिशा में बॉलकनी या बगीचे जैसे खुले स्थान नहीं होने चाहिए। इस स्थान को खुला न छोड़ने से यह रात्रि के समय न अधिक गरम रहता है और न ज्यादा ठंडा। लिहाजा यह भाग शयन कक्ष के लिएउत्तम होता है। दक्षिण- पश्चिम (नैऋत्य कोण) - यह दिशा नैऋती अर्थात् स्थिर लक्ष्मी (धन की देवी) की है। इस दिशा में आलमारी, तिजोरी या गृहस्वामी का शयन कक्ष बनाना चाहिए। चूंकि इस दिशा में दक्षिण व पश्चिम दिशाओं का मिलन होता है, इसलिए यह दिशा वेंटिलेशन के लिए बेहतर होती है। यही कारण है कि इस दिशा में गृह स्वामी का शयन कक्ष बनाने का सुझाव दिया जाता है। आलमारी को इस हिस्से की पश्चिमी दीवार में स्थापित किया जा सकता है। यह दिशा अन्य सभी दिशाओं से भारी होना चाहिए। दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण)- इस दिशा के प्रतिनिध देव अग्नि हैं। यह दिशा उष्मा, जीवनशक्ति और ऊर्जा की दिशा है। रसोईघर के लिए यह दिशा सर्वाेत्तम होती है। सुबह के सूरज की पैराबैंगनी किरणों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ने के कारण रसोईघर मक्खी-मच्छर आदि जीवाणुओं से मुक्त रहता है। वहीं दक्षिण- पश्चिम यानी वायु की प्रतिनिधि दिशा भी रसोईघर में जलने वाली अग्नि को क्षीण नहीं कर पाती। अग्नि से सम्बंधित बिली का मीटर, जेनरेटर, मेन स्विच आदि इस दिशा में संयोजित करना चाहिए। ब्रह्म स्थान- वास्तु में एक और महत्वपूर्ण स्थान होता है, वह है ब्रह्म स्थान। यह निर्माण के ठीक मध्य का स्थान कहलाता है। अर्थात् चारों तरफ से नाम कर जो स्थान ठीक मध्य में पड़ता है वह ब्रह्म सथान है। निर्माण के समय ध्यान रखना चाहिए कि इस स्थान पर पिलर, सीढ़ी, शौचालय आदि न आये। जो मकान 9 पिलर पर बनता है, उसका मध्य का पिलर इस स्थान पर आ जाता है अतः इस पिलर से एक तरफ की दूरी कम और दूसरे तरफ की दूरी थोड़ी ज्यादा कर देने से यह ब्रह्म स्थान में नहीं आता है। अनुकूल वास्तु सुख व समृद्धि दायक होता है।






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