समाचार ब्यूरो
12/01/2022  :  14:39 HH:MM
‘उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के तालीमी पिछड़ेपन का ज़िम्मेदार कौन?’
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जिस क़ौम को पीछे करना हो उसे तालीम से महरूम कर दिया जाए, वो क़ौम ख़ुद-बख़ुद पीछे हो जाएगी कलीमुल हफ़ीज़
तालीम की अहमियत, फ़ायदों और ज़रूरत से कौन इन्कार कर सकता है। न इस बात से किसी को इन्कार है कि तालीम समाज में तरक़्क़ी और ख़ुशहाली लाती है। इसका मतलब है कि किसी भी क़ौम और समाज के पिछड़ेपन में जहालत एक बड़ी वजह है। जिस क़ौम को पीछे करना हो उसे तालीम से महरूम कर दिया जाए, वो क़ौम ख़ुद-बख़ुद पीछे हो जाएगी। तालीम एक इन्सान के अन्दर शुऊर पैदा करती है, इसी शुऊर से काम लेकर इन्सान ज़िन्दगी के दूसरे मैदानों में तरक़्क़ी की प्लानिंग करता है। यूँ तो राष्ट्रीय स्तर पर भी मुसलमानों का तालीमी अनुपात बहुत ज़्यादा नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश की हालत इस मामले में बहुत ही ज़्यादा नाक़ाबिले-बयान है।

कुछ आँकड़ों में उत्तर प्रदेश के मुसलमान बिहार से भी पीछे हैं। इसका ज़िम्मेदार कौन है? अब जबकि विधान सभा चुनावों का ऐलान हो चुका है और राज्य के मुसलमानों को एक बार फिर वोट के अधिकार का इस्तेमाल करने का मौक़ा है। उन्हें इस बात पर ज़रूर ग़ौर करना चाहिये। हदीस में एक मोमिन की ख़ूबी ये बताई गई है कि वो एक सूराख़ से दो बार नहीं डसा जा सकता, यानी उसे कोई एक बार तो धोखा दे सकता है लेकिन बार-बार नहीं, उत्तर प्रदेश के मुसलमान कैसे मोमिन हैं जो पिछले सत्तर साल से धोखा खा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है, यहाँ से 80 लोक सभा सदस्य हैं, यहाँ की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा मुसलमान हैं। इसके बाद भी इनके तालीमी पिछड़ेपन में हर दिन बढ़ोतरी हो रही है। सरकारें आती हैं चली जाती हैं, पार्टियाँ और चेहरे बदलते रहते हैं, मगर मुसलमानों के साथ किसी का सुलूक नहीं बदलता। क्या सरकारों की ये ज़िम्मेदारी नहीं कि वो अपनी जनता की तालीमी तरक़्क़ी के लिये प्लानिंग करें, ऐसा नहीं कि राज्य में तालीम के नाम पर पैसा ख़र्च नहीं होता, लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये सालाना ख़र्च होता है, अलबत्ता मुसलमानों के नाम पर सरकार के पास फूटी कोड़ी भी नहीं है।

मदरसा मॉडर्नाइज़ेशन के नाम सरकार ने हज़ारों मदारिस को मदरसा बोर्ड से एफ़िलिएट करके वहाँ टीचर्स की भर्ती तो कर ली, लेकिन दो साल से ज़्यादा वक़्त गुज़र गया लेकिन उन्हें तनख़्वाह तक नहीं मिली, जबकि बजट में 479 करोड़ रुपए रखे गए हैं, अब कोई ये बताए कि भूके पेट टीचर्स किया तालीम दे सकते हैं?  सरकारी प्राइमरी स्कूलों का निज़ाम पहले ही अंधेर नगरी चौपट राज का शिकार है। मुसलमान इन्हीं दोनों जगह तालीम पते हैं, या तो सरकारी स्कूलों का रुख़ करते हैं, या मदारिस का, दोनों का हाल आपके सामने है, सरकार ने मिड-डे मील और कुछ रुपियों के वज़ीफ़े के नाम पर मुसलमानों का शोषण किया है।

क्या सरकार इन दोनों इदारों को दुरुस्त नहीं कर सकती, वो चाहे तो आज के आज में दुरुस्त कर सकती है लकिन नहीं करेगी, इसलिए कि उनके दरुस्त हो जाने से मुसलमानों का तालीमी ग्राफ़ बढ़ जाएगा। मुसलमान पढ़ लिख जाएगा और शऊर हासिल कर लेगा, फिर वो हुकूमत में अपना हिस्सा तलब करेगा। ऐसा भी नहीं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा में मुसलमान विधायक न हों, या वो सरकारों का हिस्सा न रहे हों, पहले शिक्षा विभाग भी उनके पास रहे, लेकिन उन्हें भी क़ौम से ज़्यादा अपनी कुर्सी की फ़िक्र रही है, या वो अपनी हुकूमतों के बंधुआ मज़दूर रहे हैं।

एक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 40.83 प्रतिशत मुसलमान अनपढ़ हैं जबकि बाक़ी लोग केवल 34 प्रतिशत अनपढ़ हैं, लगभग 29 प्रतिशत मुस्लमान केवल प्राइमरी तक शिक्षित हैं, प्राइमरी एजुकेशन की सुरते-हाल और दो-चार दर्जे की तालीम का क्या स्टैण्डर्ड होता है, उसे आप अच्छी तरह जानते हैं, उन्हें भी अशिक्षित लोगों में ही शामिल करना चाहिए। इस तरह 70 प्रतिशत मुसलमान अशिक्षित हैं। केवल 30 प्रतिशत मुसलमान ही हैं जो लिख पढ़ सकते हैं। मुसलमान 13.89 फ़ीसद आठवीं पास हैं, ग़ैर-मुस्लिमों में यह ग्राफ़ 17 प्रतिशत है। 12.22 प्रतिशत मुसलमान हाई स्कूल या इंटरमीडिएट हैं। 3.33 प्रतिशत मुसलमान ग्रेजुएट हैं और ग़ैर-मुस्लिम उसका दोगुना 6.17 प्रतिशत ग्रेजुएट हैं और 1.11 प्रतिशत मुसलमानों ने ग्रेजुएशन से ऊपर की तालीम हासिल की है और ब्रादराने-वतन में ये ग्राफ़ भी दो गुनी यानी 2.13 प्रतिशत है।






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